Tuesday, December 31, 2019

आज ही बनी थी वो कंपनी, जिसने भारत पर करीब 150 सालों तक किया राज

16वीं शताब्दी में अंग्रेजी साम्राज्य हिचकोले लेने लगा था. यूरोप में व्यापार और मुनाफे के दरवाजे बंद होते जा रहे थे. हालैंड और पुर्तगाल फैलते जा रहे थे.उनकी व्यापारिक और औपनिवेशिक ताकत अंग्रेजों को चुनौती देने लगी थी. बेशक भारत में आने के बाद अंग्रेज शान से कहा करते थे कि अंग्रेजी
राज का सूरज कभी डूबता नहीं..लेकिन ये सूरज तब डूबता हुआ ही लग रहा था. ऐसी हालत में 31 दिसंबर 1600 में इंग्लैंड की महारानी से पट्टा हासिल कर ईस्ट इंडिया कंपनी की शुरुआत हुई. इस कंपनी को पूर्वी दुनिया के देशों में व्यापार का एकाधिकार दे दिया गया. जब ईस्ट इंडिया कंपनी की शुरुआत हुई, तब अमेरिका के तटीय इलाकों से लेकर वेस्टइंडीज और एशिया, चीन और जापान की ओर फ्रेंच, स्पेनिश, डच और पुर्तगाली व्यापारी कंपनियां अपने व्यापार को फैलाना शुरू कर चुकी थीं. ब्रिटिश व्यापारी यूरोप तक सिमटे थे और वहां भी उनका मुनाफा सिकुड़ता जा रहा था. सन 1588 में स्पेनिश अर्माडा युद्ध में मात खाने के बाद अंग्रेजी व्यापारिक संगठनों में घबराहट फैल गई.

जब अंग्रेजों को यूरोप में झटके लगने शुरू हुए तो उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप की ओर नजर दौड़ानी शुरू की. ब्रिटेन को सस्ते कच्चे माल के साथ उत्पादों को बेचने के लिए बड़े बाजार की जरूरत थी. बस इंग्लैंड के बड़े और असरदार व्यापारियों ने महारानी के दरबार में जाकर फरियाद शुरू कर दीं. रसूखदार लोगों की पैरवी महारानी तक पहुंचने लगी. अंग्रेज पहले भी कर चुके थे भारत से व्यापार की कोशिश
अंग्रेज इससे पहले भी भारत से व्यापार करने की कोशिशें कर चुके थे लेकिन छोटी-मोटी इन कोशिशों से उन्हें सफलता नहीं मिल सकी थी, क्योंकि यहां पहले से जम चुके पुर्तगालियों और डच व्यापारियों ने न केवल उन्हें खदेड़ दिया बल्कि ढेरों मुश्किलें भी पैदा कीं. इसीलिए अंग्रेज अब ताकत के साथ एक बड़ी कंपनी के रूप में यहां आना चाहते थे, जिसकी सुरक्षा का जिम्मा खुद ब्रिटेन की क्वीन एलिजाबेथ लें.

कंपनी के पीछे थी ब्रिटेन की राजसी ताकत
10 अप्रैल 1591 में ईस्ट इंडिया कंपनी अनौपचारिक तौर पर स्थापित की गई. ये कंपनी इंग्लैंड के कई धनी व्यावसायियों ने मिलकर स्थापित की थी, इसमें अडचन नहीं आए, लिहाजा ब्रिटिश राजघराने से जुड़े कई आला अफसरों को हिस्सेदार बनाया गया. फिर इसके बाद इस कंपनी को क्वीन एलिजाबेथ की छत्रछाया में लाने की कोशिशें शुरू हुईं.
आखिरकार 31 दिसंबर 1600 में महारानी की मंजूरी के बाद ब्रिटिश राजघराने ने इस पर मुहर लगा दी. ईस्ट इंडिया कंपनी को इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका, भारत, चीन और बर्मा जैसे पूर्वी देशों में व्यापार फैलाने की अनुमति मिल गई.अब ईस्ट इंडिया कंपनी कोई छोटी-मोटी कंपनी नहीं थी, बल्कि रॉयल चार्टर से संरक्षित कंंपनी थी. यानि उसके पीछे ब्रिटेन की राजसी ताकत खड़ी थी. सर थामस स्मिथ कंपनी के पहले गवर्नर बने. इसका मुख्यालय इंडिया हाउस लंदन में बना.

1608 में पहुंचे सूरत
ईस्ट इंडिया कंपनी का पहला पड़ाव भारत नहीं बल्कि इंडोनेशिया था. कंपनी के पांच जहाजों ने इंडोनेशिया के लिए 1601 में कूच किया. इसके बाद ईस्ट इंडिया ने अगली यात्रा में 1607 में दक्षिण अफ्रीका की ओर हुई. जब इन दोनों देशों में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने ऑफिस बना लिये तब उन्होंने भारत की ओर देखा. 24 अगस्त 1608 में पहली बार अंग्रेजों के पहले जहाज ने गुजरात के सूरत तट पर लंगर डाला.

जहांगीर के सामने उपहारों की झड़ी लगा दी
समस्या यही थी कि भारत में पहले से मौजूद डच और पुर्तगाली व्यापारियों के सामने पैर किस तरह जमाए जाएं. ये अंग्रेजों के लिए न तो आसान था और ना
ही वो इसे एक दिन में कर पाये. क्या आप यकीन करेंगे तत्कालीन मुगल शासक जहांगीर को मनाने में उन्हें करीब बीस साल लग गये. शुरू में जब अंग्रेज व्यापारियों ने जहांगीर के दरबार में हाजिरी दी तो वो उनके लिए यूरोपीय बाजार की वस्तुएं लेकर आए, बेशक ये शानदार थीं. तकनीक तौर पर बेजोड़. इसमें
जीवन को आसान करने वाले सामान थे.साथ ही थे आला दर्जे की आरामदायक और लग्जरी वस्तुएं. बादशाह की तो आंखें ही चौंधियां गईं.

महंगी सौगातों से खुश हो जाते थे मुगल बादशाह
भारत में वैभव तो था लेकिन तरक्की के मामले में वो अब भी यूरोप से कोसों पीछे था. रेनांसा के दौर में जितना काम और विकास यूरोप में हुआ था, वो भारतीय बादशाहों और उनके दरबारियों के लिए नया था. यूं भी मुगल बादशाहों के बारे में मशहूर था कि महंगी और आला सौगातों से वो बहुत जल्दी खुश हो जाया करते थे.उनपर असर जमाने के लिए इससे बेहतरीन रास्ता कोई और था भी नहीं.
बादशाह जहांगीर अंग्रेजों से खुश हो गया. हालांकि यूरोप के साथ व्यापार की अनुमति देने में वो अभी हिचक रहा था, क्योंकि उसे भी समझ में आ गया था अंग्रेजों को अनुमति देने का मतलब है अपने व्यापारियों और काश्तकारों के हाथ और गले को काटना. बादशाह के बुद्धिमान सलाहकारों ने उन्हें ऐसा नहीं करने की अनुमति दी.

आखिरकार मिली फैक्ट्रियां स्थापित करने की अनुमति
अंग्रेजों को व्यापार की अनुमति तो मिली लेकिन मामूली वस्तुओं की. वांछित अनुमति नहीं मिलने पर अंग्रेज निराश बेशक हुए लेकिन उन्हें मालूम था कि इंतजार का फल मीठा होता है…वो मुगल बादशाहों के साथ समुद्र की सीमा से लगे अन्य राजे-रजवाड़ों को यूरोपीय उपहारों से खुश करते रहे.
यूरोपीय बाजार से हर बार आने वाले सामान बढ़-चढ़कर होते थे. जब एक बार इनकी आदत भारत में बादशाहों, राजाओं और उनके आला अधिकारियों को पड़ गई तो अंग्रेजों का काम आसान होने लगा.उन्हें ना केवल मनवांछित व्यापार करने की अनुमति मिली बल्कि भारत में फैक्ट्रियां स्थापित करने की मंजूरी भी मिल गई.
भारत की बेशकीमती संपदा जहाजों में भरकर यूरोप जाने लगी. यूरोपीय बाजार और इंग्लैंड की फैक्ट्रियों में बना सामान भारत आने लगा.1646 तक अंग्रेजों ने भारत के समुद्रतटीय इलाकों के बड़े शहरों और बंदरगाहों के करीब अलग अलग सामानों को बनाने के लिए 23 फैक्ट्रियां स्थापित कर दी थीं, जो भारत के ही कच्चे सामान को लेकर उत्पादन करती थीं.

जब औरंगजेब ने चले जाने का आदेश दिया
शुरू में तो ब्रिटिश फौजें समुद्र में उनके जहाजी बेड़ों की सुरक्षा करती थीं लेकिन बाद में कंपनी इस स्थिति में आ गई कि भारत में उसके जहाजी बेड़ों को उसकी प्राइवेट सेना ने संभाल लिया. औरंगजेब के शासनकाल के दौरान एक बार जब अंग्रेज व्यापारियों ने वादाखिलाफी कर कुछ हिस्सों पर कब्जा करना
चाहा तो औरंगजेब की मजबूत सेनाओं ने तुरंत अंग्रेजों के दांत खट्टे ही नहीं किये बल्कि उन्हें बिस्तरबोरिया बांधने का भी आदेश दे दिया. अंग्रेजों ने तुरंत बादशाह से माफी मांगकर और ज्यादा कस्टम ड्यूटी देनी शुरू कर दी.

इस तरह मजबूत होती गई ईस्ट इंडिया कंपनी
अंग्रेजों ने खुद को सुनियोजित तरीके से मजबूत किया. अंग्रेजों ने कच्चे माल की आपूर्ति और भारतीय बाजार में अपने सामानों को बेचने के लिए बड़े भारतीय व्यापारियों को भी अपनी ओर मिलाया. इससे भारतीय व्यावसायियों के भी वारे-न्यारे होने लगे. ईस्ट इंडिया की उन्नति में अंग्रेजों और भारतीय व्यावसायियों का गठबंधन बहुत मुफीद रहा.

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