भारत के महानगरों में मुंबई की एक अलग पहचान है यूं तो हरेक महानगर अपने आप में पूरा भारत होता है जहां विभिन्न प्रांतों के लोग आकर बसते हैं किंतु मुंबई अलहदा है जिसका आसमान मायाजाल से ढंका हुआ और धरती ख्वाबों के बगीचों से सजी-धजी है. अपनी धुन में रहने वाली इस मुंबइया जमीन पर समय जैसे भागता है और उसके पीछे लोग बेतहाशा दौड़ लगाते हैं सिर्फ यही नहीं बल्कि इस धरती में हर एक राज्य की परंपरा और संस्कृति को अपनी आबोहवा में ऐसा रचा बसा लिया है जो देश की इस आर्थिक नगरी में चार चांद लगाती है. महाराष्ट्र की मराठी भाषा एक मां की तरह लगभग सभी प्रांतों की भाषाओं को अपनी गोद में लेकर दुलारती है. प्यार करती है.
मूल मराठी मानस के मध्य हिंदी विशेष रूप से दमकती है क्योंकि मुंबई में भिन्न भिन्न राज्यों के लोग जब आपस में मिलते हैं तो हिंदी ही सबसे बड़ा सेतु होता है जो सबको आपस में बांधता भी है और साथ भी रखता है चूंकि मराठी भाषा देवनागरी लिपिबद्ध है तो उसने हिंदी को बेहद आसानी से समझ कर धारण किया है.और ये मुंबई की विशेषता है कि हिंदी जनमानस को उसने देश के अन्यत्र महानगरों से अधिक अपने गले लगाया है. इसलिए तो यहां बसने वाले प्रत्येक बाशिंदों के लिए मुंबई जान है. मुंबई मेरी जान का नारा यहां इसलिए बुलंद है क्योंकि मुंबई को वह दिल से प्यार करते हैं. उनकी मोहब्बत है मुंबई.
यह मुंबा देवी का चमत्कार ही है या इस मायानगरी की माया कि यहां आने के बाद लोग यहां से जाना नहीं चाहते हैं. हर प्रकार के दीन- धर्म के लोगों से युक्त मुंबई नगरी में मराठी गुजराती और उर्दू की समृद्ध साहित्यिक परंपरा रही है. दिलचस्प ये भी है कि इसमें हिंदी पीछे नहीं है. बावजूद इसके कि पहले यहां हिंदी बोली और समझी ही नहीं जाती थी. आज मुंबई में हिंदी बोली -समझी जाती है तो इसके पीछे कई लोगों का हाथ है. ये अलग बात है कि हिंदी भी मुंबई नगरी की तरह अपने में सभी भाषाओं को संजो लेती है और सब को एकता के सूत्र में पिरोने का काम करती है. मुंबई भारतीय चलचित्र की जन्मस्थली माना जाए तो उचित होगा. लिहाजा यहां बड़ी संख्या में सिनेमा हॉल हैं जो हिंदी, मराठी अंग्रेजी आदि भाषा की फिल्में लोगों को दिखाकर इन भाषाओं के प्रचार-प्रसार में अपना योगदान देते हैं. यहां के निवासी सभी प्रकार के त्योहारों को साथ – साथ मनाते हैं चाहे गणेशोत्सव हो, दिवाली हो , होली हो, ईद हो क्रिसमस हो , नवरात्रि हो, दशहरा हो, या फिर दुर्गा पूजा हो इन सब त्योहारों में लोग आपस में मिलकर अपने विचारों का आदान प्रदान करने के लिए ज्यादातर उस भाषा का प्रयोग करते हैं जो भाषा सबके समझ में आती हो. हिंदी ऐसी भाषा है जो भारतीय भाषाओं में सबसे ज्यादा बोली समझी जाती है.
भारतीय इतिहास में देवनागरी लिपि को करीब दस हजार साल पहले का बताया गया है ,इस लिपि के अनुसार भारत में ही कई भाषाओं का विकास हुआ है. जिसमें हिंदी सबसे बड़ी भाषा के रूप में रही. हिंदी के प्रचार-प्रसार में मुंबई के हिंदी भाषी और गैर हिंदी भाषी कई साहित्यकारों चाहे वह स्त्रियां हो या पुरुष दोनों ही समुदाय ने अपना सक्रिय योगदान दिया है. मुंबई में सक्रिय महिला साहित्यकारों में कुछ नाम तो ऐसे हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर पूरे आदर के साथ लिए जाते हैं जिसमें सूर्यबाला , सुधा अरोड़ा और कमलेशबक्शी शीर्षस्थ हैं.
सूर्यबाला -मिर्जापुर में जन्मी सूर्यबाला जब 1975 में मुंबई आई इसके बाद से इनके लेखन में विशेष प्रगति हुई. इनका साहित्य समकालीन व्यंग्य एवं समकालीन कथा साहित्य में अपनी विशिष्ट भूमिका एवं महत्व रखता है.
सुधा अरोड़ा -लाहौर पाकिस्तान में जन्मी सातवें दशक की चर्चित कथाकार सुधा अरोड़ा ने मुंबई में स्वतंत्र लेखन का कार्य किया है.
कमलेश बख्शी – इटारसी मध्य प्रदेश की मूल निवासी कमलेश बक्शी विवाह के उपरांत मुंबई आई. इन्हें हिंदी, अंग्रेजी, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं का अच्छा ज्ञान है. इसके बावजूद उन्होंने हिंदी भाषा को ही अपनी लेखनी का माध्यम बना इन्होंने कई अनुवाद कार्य भी किए साथ ही चर्चित अखबारों में कॉलम आदि लिखने का भी कार्य किया है.
पुरुष साहित्यकारों में कन्नड़ भाषी नारायण दत्त एक ऐसे साहित्यकार हैं जिन्होंने मुंबई में रहकर हिंदी के प्रचार-प्रसार में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है ये संस्कृत और अंग्रेजी के अच्छे ज्ञाता थे. इन्होंने कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया और मुंबई में कई वर्ष तक हिंदी को बढ़ावा देने के लिए प्रयास करते रहे मुंबई में हिंदी के प्रचार-प्रसार में अपना महत्वपूर्ण योगदान देने में दूसरा नाम धर्मवीरभारती का आता है धर्मवीर भारती नारायण दत्त के ही शिष्य थे उन्होंने भी अपने गुरु की भांति हिंदी के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया. लोकप्रिय साहित्यिक पत्रिका धर्मयुग के संपादक रहे. मुंबई में हिंदी के फलने फूलने में इस पत्रिका का विशेष योगदान रहा है.
इनके बाद इस पत्रिका के संपादक गणेश मंत्री बने यह मूलतः कोटा राजस्थान के निवासी थे हिंदी के वरिष्ठ चिंतक लेखक और पत्रकार थे. उन्होंने धर्मयुग पत्रिका के संपादन से प्रधान संपादक तक के पद पर काम किया. इसके बाद नाम आता है कुमार प्रशांत जी का ये ऐसे पत्रकार है जो समसामयिक विषयों पर लिखते रहें और इन्होने नवनीत और धर्मयुग पत्रिका के संपादन में अपना योगदान दिया इन्होंने अपने ससुर जयप्रकाश नारायण जो कि भारत रत्न से सम्मानित है और जिनकी मृत्यु पर 7 दिन का राष्ट्रीय शोक रखा गया था से किसी प्रकार का सहयोग नहीं लिया. ये गांधी मार्ग के संपादक हैं.
मुंबई महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के चंद्रकांत वाडकर मुंबई विश्वविद्यालय के हिंदी के प्रोफेसर रह चुके हैं इन्होंने भी हिंदी की महत्वपूर्ण सेवा की है भागीरथ दीक्षित मुंबई में रहते हुए हिंदी में काव्य शास्त्र पर मौलिक ग्रंथों की रचना करके हिंदी के प्रचार-प्रसार में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
अक्षय जैन – अक्षय जैन साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण सम्मान से सम्मानित हुए हैं.
कुंतल कुमार– कुंतल कुमार मुंबई के वरिष्ठ कविता पीढ़ी के बहुचर्चित व विवादास्पद कवि रहे हैं.
धीरेंद्र अस्थाना – आठवें , नौवें दशक के उन कथाकारों में से एक हैं जिन्होंने पाठकों का ध्यान अपनी रचनाओं की ओर आकर्षित किया. इन्होंने कई पत्र-पत्रिकाओं में संपादक और उपसंपादक पद पर भी काम किया है. अस्थाना जो ने मुंबई शहर की पहली नगर पत्रिका ‘ सबरंग ‘ का पूरे दस वर्षों तक संपादन किया है.
जगदंबा प्रसाद दीक्षित -बालाघाट मध्य-प्रदेश में जन्मे दीक्षित जी ने मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज में हिंदी के प्रोफेसर के पद पर काम करते हुए हिंदी भाषा के विकाश में अपना योगदान दिया.
ये हिंदी के वे साहित्यकार हैं. जिन्होंने मुंबई में हिंदी के प्रचार-प्रसार में अपना महत्व पूर्ण योगदान दिया है.
मुंबई के ही एक साहित्यकार ह्रदयेश मंयक जी भी हैं जिन्होंने अपनी पुस्तक मुंबई का साहित्यिक परिदृश्य एक पुनरावलोकन में हिंदी के ऐसे कई साहित्यकारों को रखा है जो निरंतर हिंदी भाषा के विकास में अपना योगदान दे रहे हैं इनमें उन्होंने कुछ ऐसे भी साहित्यकारों को रखा है जिनके पास ना कोई मंच है ना कोई अखबार ही है फिर भी ये अपनी रचनाओं के द्वारा हिंदी के प्रचार-प्रसार में अपनी महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं.
देखा जाए तो मुंबई में केवल उद्योग धंधे रोजी-रोटी की तलाश में ही लोग नहीं आते बल्कि ऐसे लोग भी मुंबई में आते हैं जो साहित्य और कला को अपना जीवन समर्पित कर चुके हैं मुंबई की दौड़- धूप वाली जिंदगी भी उनके इस समर्पण को कम नहीं करता हैं बल्कि साहित्य और अपनी भाषा के प्रति लगाव को बढ़ाती ही है ये मुंबई के होकर रह जाते हैं. मुंबई उनको अपने आगोश में समेट लेती है तभी तो यह शहर जान से बढ़कर प्यारा हो जाता है.
The post संगीता पांडेय: ख्वाबों के शहर में हिंदी की हकीकत appeared first on indiaabhiabhi.
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